आदमी से भी बड़ी हैं कुर्सियाँ तानकर सीना खड़ी हैं कुर्सियाँ फ़ितरन हम तो अहिंसक हैं सभी हम लड़े कब हैं, लड़ी हैं कुर्सियाँ कैसा मज़हब, क्या सियासत, क्या अदब सबके आँगन में पड़ी हैं कुर्सियाँ आदमी छोटे-बड़े होते नहीं दरअसल छोटी-बड़ी हैं कुर्सियाँ उन निगाहों में कहाँ है रौशनी दूर … Continue reading आदमी से भी बड़ी हैं कुर्सियाँ
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